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उत्तराखंड के जोशीमठ में हजारों मकानों में दरारों की प्राकृतिक आपदा के लिए प्रकृति कम और शासन तंत्र ज्यादा जिम्मेदार है। प्रकृति से खिलवाड़ करने के प्रति आंखें मूंदें रखने वाले नाकारा तंत्र को यदि सजा का प्रावधान नहीं किया गया तो प्रकृति इसी तरह सजा देती रहेगी, जिसका खामियाजा आम लोग भुगतते रहेंगे। जोशीमठ में कुल 4,500 इमारतें हैं और इनमें से 610 में बड़ी दरारें आ गई हैं। जिससे वे रहने लायक नहीं रह गई हैं।
वर्ष 2006 की एक वैज्ञानिक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि जोशीमठ प्रति वर्ष एक सेंटीमीटर धंस रहा है। उस वक्त यदि इस रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए पर्यावरण और भूगर्भ संबंधी खतरों को टालने की कवायद के गंभीर प्रयास किए गए होते, तो शायद बर्बादी की यह नौबत नहीं आती।दरअसल, जोशीमठ में भू-धंसाव के पीछे अनियंत्रित निर्माण भी जिम्मेदार माना जा रहा है। बेतरतीब और अनियोजित निर्माण का जो दंश आज जोशीमठ झेल रहा है।
उत्तराखंड में पहाड़ के हर छोटे-बड़े शहरों की कहानी कमोबेश जोशीमठ जैसी ही है। पर्यावरण और भूगर्भ विशेषज्ञ सालों पहले ही हिमालय क्षेत्र में बसे पहाड़ी राज्यों में भूकम्प सहित दूसरी तरह की प्राकृतिक आपदाओं की चेतावनी दे चुके हैं। इसके बावजूद वोटों की राजनीति के डर से राज्यों और केंद्र सरकार ने इसकी रोकथाम के उपाय करने के लिए कठोर कदम नहीं उठाए। इसकी कीमत पूर्व में हजारों लोगों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है।उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विश्व बैंक ने वर्ष 2018 में एक अध् ययन करवाया था। इस अध्ययन के अनुसार इस राज्य में 6300 से अधिकतम स्थान भूस्खलन जोन के रूप में चिन्हित किए गए। एक संबंधित रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में चल रही हजारों करोड़ रुपये की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या फिर जंगलों को उजाड़ कर बन रही हैं और इसी कारण से भूस्खलन जोन की संख्या बढ़ रही है।
अगस्त 2022 से उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, जोशीमठ के धंसने में भूगर्भीय कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अत्यधिक मौसम की घटनाओं जैसे भारी वर्षा और बाढ़ ने भी जोशीमठ के धंसने में योगदान दिया है। जून 2013 और फरवरी 2021 की बाढ़ की घटनाओं से भी क्षेत्र में जमीन धंसने का खतरा बढ़ा है।गढ़वाल आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में एक पैनल ने 1978 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें कहा गया था कि शहर और नीती और माणा घाटियों में बड़े निर्माण कार्य नहीं किए जाने चाहिए क्योंकि ये क्षेत्र मोरेन पर स्थित हैं। मोरेन यानी चट्टानों, तलछट और चट्टानों का ढेर। जोशीमठ, हेम, अर्नोल्ड और अगस्त गैंसर की पुस्तक सेंट्रल हिमालय के अनुसार, भूस्खलन के मलबे पर बनाया गया है।
1971 में कुछ घरों ने दरारों की सूचना दी थी, जिससे एक रिपोर्ट मिली जिसमें कुछ उपायों की सिफारिश की गई थी। जिसमें मौजूदा पेड़ों के संरक्षण और अधिक पेड़ों के रोपण के साथ-साथ उन शिलाखंडों का संरक्षण भी शामिल है, जिन पर शहर बना है। हालांकि, ऐसे दावे हैं कि इन उपायों को कभी लागू नहीं किया गया।इतना ही नहीं भूकम्प की दृष्टि से उत्तराखण्ड अत्यंत संवेदनशील माना जाता है। इसका अधिकांश भाग हिमालयी भू-भाग में स्थित होने के कारण यहाँ भूकम्प की आशंका प्रबल बनी रहती है।
भूगर्भ विज्ञानियों के अनुसार हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण भारतीय भूखण्ड के यूरेशियाई भूखण्ड से टकराने के परिणाम से हुई है। भूगर्भ विज्ञानी मानते हैं कि भारतीय भूखण्ड आज भी सतत रूप से उत्तर-पूर्व की दिशा में धीरे-धीरे खिसक रहा है जिस कारण हिमालय की चट्टानें दबाव की स्थिति में बनी हुई हैं। चट्टानों में संचित यह ऊर्जा जब अवमुक्त होती है तो भूकम्प आता है। विगत दो शताब्दियों से 8.0 परिणाम से अधिकता का भूकम्प इस क्षेत्र में नहीं आया है जिस कारण भूगर्भ में बड़ी मात्रा में संचित ऊर्जा अवमुक्त नहीं हो पायी है और इससे भविष्य में यहाँ भूकम्प की संवेदनशीलता अत्यधिक बढ़ने की आशंका है।
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्य अपनी पारिस्थितिकी के नुकसान के कारण अपरिवर्तनीय क्षय के चरण में प्रवेश कर रहे हैं और यहाँ भूस्खलन की लगातार घटनाएँ अपरिहार्य बन सकती हैं। इस पहल से, हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र और इसकी पर्वत श्रृंखला में स्थित इन पाँचों देशों के अलावा, चीन, म्याँमार एवं अफगघनिस्तान में भी लोगों की आजीविका व कल्याण सकारात्मक रूप में प्रभावित होने की उम्मीद है। इसे तीसरे ध् रुव के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि इसमें ध्रुवीय चोटी क्षेत्र से इतर, दुनिया में सबसे बड़े हिम आवरण, हिमनद के बाहर पर्माफ्रॉस्ट स्थित हैं। नेपाल में स्थित एक अन्तर-सरकारी ज्ञान एवं शिक्षण केन्द्र, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार, पहले से ही जलवायु परिवर्तन से गम्भीर रूप से प्रभावित हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र का तापमान, पूर्व-औद्योगिक स्तर के मुकाबले, वर्ष 2100 तक, पाँच डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।
हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जलधाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग के असर से हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की चेतावनी पर्यावरण विशेषज्ञ पहले कई बार दे चुके हैं। जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे। वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी। जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।हिमालय पहाड़ न केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती है। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ को ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। हिमालय की संरचना में परिवर्तन होने से कई बार यमुना में पानी का संकट भी खड़ा होता है। दरअसल अधिक सुरंग या अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने नैसर्गिक स्वरूप में रह नहीं पाता और उसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने आ रहे हैं।
हिमालय और आसपास के क्षेत्रों में चट्टानों के गिरने, भूस्खलन और भारी बारिश के कारण व्यापक दुष्प्रभाव सामने आ रहे हैं, जिसे प्रकृति के प्रकोप के रूप में समझा जाना चाहिए। जोशीमठ में भूस्खलन एक और नई चेतावनी है, यदि वक्त रहते क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर सरकारों ने इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो आने वाले वक्त में प्रकृति के रौद्ररूप के कहर को आम लोगों पर टूटने से रोका नहीं जा सकेगा।