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डॉ. राहुल त्यागी
वर्ष 2001 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में चरमपंथ समाप्त होने तक निर्णायक युद्ध करने की घोषणा के साथ शुरू हुए अभियान ने आगे चलकर उसी तालिबान के सामने डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा फरवरी-2020 में समझौता किए जाने तक का सफ़र तय किया,जिसे हाल ही में जो बाईडेन ने वहाँ से अमेरिकी सेना हटाकर अफ़गानिस्तान की जनता को उसके हाल पर छोड़ने के पड़ाव तक जा पहुँचाया।आज निश्चित रूप से यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हज़ारों अमेरिकी सैनिकों की जान गंवाने और खरबों डॉलर का व्यय करने के बाद भी अमेरिका का अफ़गान मिशन विफल रहा ? यदि हाँ,तो संकेत साफ़ है कि या तो अमेरिका की ताक़त अब पहले जैसी नही रह गयी है या उसका लक्ष्य कुछ और है।कंधार से काबुल तक मची अफ़रातफ़री के बीच आयीं दहशतभरी खबरें व तस्वीरें देखकर अमेरिका का वो हवाई दावा याद आता है जिसमें उसने अफ़ग़ानिस्तान में प्रोफ़ेशनल आर्मी का निर्माण करने पर ही अफगान से निकलने की बात कही थी,इसके उलट अमेरिका को ख़ुद काबुल में अपने लोगों की सुरक्षा के लिए दोहा समझौते के तहत तालिबान का सहारा लेना पड़ा।अमेरिका के इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये का खामियाजा पूरे अफ़ग़ानिस्तान को तो चुकाना पड़ ही रहा है,साथ ही भारत सहित तमाम अन्य देशों के माथे की लकीरें भी गाढ़ी हो गई हैं।यह पहली बार नहीं है कि जब किसी देश के संकटमोचक के रूप में सक्रिय हुए अमेरिका ने बाद में उसी देश को घोर संकट में छोड़ दिया हो।इतिहास बताता है कि जिस प्रकार 1975 में गृह युद्ध से तबाह हुए वियतनाम को अमेरिका ने अत्याधिक जटिल परिस्थितियों में उसके हाल पर छोड़ दिया था,वैसे ही 2003 में इराक़ पर आक्रमण कर इसे एक अशासकीय मुल्क में तबदील कर दिया था।
अमेरिका का वरचस्व और नियत,फ़िलहाल दोनो पर गम्भीर प्रश्न हैं।बात वर्चस्व की हो तो सवाल है कि 1989 में विश्व की शक्तियों को दो भागों में विभाजित करने वाली बर्लिन की दीवार को गिराने में निर्णायक रहे अमेरिका की इस प्रकार अफ़ग़ान से वापसी क्या उसकी मौजूदा कमजोरी दर्शाती है ? क्या ये वही अमेरिका है,जिसने उस सोवियत संघ को धराशायी किया था,जो एक समय महाशक्ति के रूप में पूरे विश्व का नेतृत्व करता था।विशेषज्ञों का आंकलन है कि अफ़ग़ानिस्तान के बाद सोमालिया और इराक़ से भी धीरे धीरे अमेरिकी सैनिक पूरी तरह लौट आएंगे।इसके अलावा आज अमेरिका की नियत भी कठघरे में है।9/11 के आतंकी हमले के बाद से अब तक अमेरिका यदि तालिबान और अलक़ायदा के विरुद्ध सुनियोजित कार्यवाही कर रहा होता तो काबुल के बाद इस्लामाबाद पर कार्यवाही होती।आतंकवाद का केंद्र होने के बावजूद अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना सिपहसलार बनाया जिसके चलते पाकिस्तान को ठोस आर्थिक सहायता मिली व इसका दुरुपयोग भारत के विरुद्ध आतंकी संगठनों को संरक्षण देने में किया गया।
साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से भी अमेरिका का पलड़ा कमजोर नज़र आता है।ब्राउन यूनिवर्सिटी के आंकलन पर गौर करें तो अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में अपने मिशन को लेकर लगभग 2.26 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च किए हैं,जबकि इराक़ और अन्य स्थानों के विपरीत अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध द्वारा रणनीतिक रूप से उसे कुछ हासिल नहीं हुआ।जहां इराक़ युद्ध में अमेरिका को कच्चे तेल का लाभ हुआ,वहीं अफ़ग़ानिस्तान में ऐसा कुछ भी हाथ नही आया।भारी आर्थिक खर्चे के साथ ही अपने 2000 से अधिक सैनिक भी खो दिए।इसके अनुसार तो यही कहना होगा कि साम्राज्यवाद के मोर्चे पर भी अमेरिका के लिए अफ़ग़ान एक घाटे का सौदा रहा।इससे इतर,यह भी माना जा रहा है कि घरेलू दबाव और विश्व राजनीति में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में अपनी उपस्थिति का विस्तार नहीं कर सका,लिहाज़ा वह अपनी इस विफलता को मिशन पूरा होने के तौर पर प्रसारित कर रहा है।सैनिकों की वापसी के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जैसे ही अपने भाषण में अफ़ग़ानी मिशन पूरा होने की बात कही तो आंतरिक मोर्चे पर भी चौतरफ़ा आलोचना का सामना करना पड़ा।पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने इसके जवाब में तालिबान के काबुल पर कब्जे को अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी हार बताया,तो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की पूर्व राजदूत निक्की हेली ने इस घटनाक्रम को बाइडेन प्रशासन की असफलता करार दिया।और हो भी क्यों ना,संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद की सरकार के गठन से पूर्व,लगभग 26 लाख अफ़ग़ानी शरणार्थी बन चुके हैं,जिनमें अधिकतर ईरान और आतंक का पर्याय बन चुके पाकिस्तान में हैं,अन्य लगभग 40 लाख अफ़ग़ान के भीतर आंतरिक रूप से विस्थापित हैं।
आख़िरकार,अफ़ग़ानिस्तान की दयनीय स्थिति पर यही कहना होगा कि पिछले 20 वर्षों से अफगानिस्तान के रहनुमा रहे अमेरिका द्वारा किए गए मानवाधिकार,महिला सुरक्षा,लोकतंत्र और राष्ट्र निर्माण जैसे वादे पूरा होने की आस लिए हुए अपना दम तोड़ चुके हैं।इन हालातों को लेकर डरे सहमे अफ़ग़ानिस्तानिओं के बस में अमेरिका और अपने भाग्य को कोसने के अतिरिक्त और कुछ नही है।
*डॉ. राहुल त्यागी एक लेखक स्तम्भकार हैं और लेख उनकी निजी राय है