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यह देश का दुर्भाग्य है कि 21वीं सदी में भी हम जातिवाद में उलझे हुए हैं। एक तरफ समाज के सभी वर्गों में समानता लाने के लिए तमाम समाजसेवी संगठन मुहिम चला रहे हैं तो वहीं कई राजनैतिक दल वोट बैंक की सियासत के सहारे सत्ता सुख भोगने के लिए जातिगत जनगणना कराये जाने के लिए उतावले नजर आ रहे हैं। उनको इस बात की चिंता नहीं है कि जातीय गणना कराया जाना किसी ‘विस्फोट’ से कम नहीं है। यह वह ‘आग’ है जिसमें उन लोगों के तो हाथ जलना तय ही है जो इसे लगा रहे हैं, वहीं वह भी इस ‘आग’ से नहीं बचेंगे जो तटस्थ रहेंगे। इससे समाज में भेदभाव को बढ़ावा मिलना तय है, भले ही जातीय गणना का समर्थन करने वाले इसके तमाम फायदे गिनाते रहें, लेकिन इसके पीछे सत्ता हथियाने का खेल ही है। इस ‘खेल’ की बुनियाद तो काफी पहले पड़ गई थी, लेकिन जबसे भारतीय जनता पार्टी और खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देते हुए जातियों में बंटे हिन्दुओं को एकजुट करने की सफल मुहिम चलाई तो जातिवाद की राजनीति करने वाले दलों के नीचे से सत्ता खिसक गई। इसी के बाद हिन्दुओं को आपस में बांटने और लड़ाने का खेल फिर से शुरू हो गया। इसीलिए साजिश के तहत जातीय गणना कराई जा रही है। गौरतलब है कि अपने देश में तमाम जातियां और उनकी उपजातियां हैं। इनकी संख्या कितनी है, किस जाति में कितने लोग हैं, इनकी आर्थिक स्थिति क्या है, ये फिलहाल निर्धारित नहीं है। साल 1931 से लेकर आज भी यही मुद्दा हमारे देश में विकास की राह में रोड़ा बना हुआ है। वर्ष 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी। साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया जरूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया। साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं। इसी वजह से सबसे ज्यादा विवाद पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या को लेकर ही है। मोटे अनुमान के अनुसार देश में पिछड़ा वर्ग समाज की आबादी करीब 50 फीसदी के करीब है। इसी वर्ग की संख्या को पुख्ता करने के लिए अलग-अलग राज्य, केंद्र पर दबाव बनाते रहते हैं, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में वोटों की गोलबंदी करने के लिए जातिगत पहचान का सहारा सबसे अधिक लेती हैं। इस संबंध में कुछ संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आंकड़े हैं, वो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है। जैसे ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट जाती है तो एक नया विवाद हो सकता है और मान लीजिए यह प्रतिशत बढ़ जाता है, जिसकी पूरी संभावना है तो यह वर्ग यानी ओबीसी और उसके नेता सत्ता और संसाधन में हिस्सेदारी की और मांग करने लगेंगे। यह भी तय है कि जातीय जनगणना में आदिवासियों और दलितों के आकलन में फेरबदल होगा नहीं, क्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैं, ऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंजाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है। भाजपा की पैठ अभी सवर्ण जातियों में ज्यादा है। आरक्षण का दायरा बढ़ने पर सवर्ण जातियां विरोध करेंगी और सरकार की परेशानी बढ़ेगी।जातिगत जनगणना की मांग करने वाले दलों में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी समेत दर्जन भर से ज्यादा पार्टियां शामिल हैं। सभी चाहते हैं कि ओबीसी की सही तादाद सामने आए, उसके बाद जरूरी हो तो आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा को बढ़ाया जाए, लेकिन इसमें से कोई भी दल यह नहीं कह रहा है कि हिन्दुओं की तरह मुसलमानों में भी विभिन्न जातियों के अलग-अलग आंकड़े जुटाए जाएं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह दल अपने राजनैतिक फायदे के लिए हिन्दुओं के वोट बैंक को तो बिखरता हुआ देखना चाहते हैं, लेकिन मुसलमानों का वोट थोक के भाव चाहते हैं, इसलिए मुसलमानों में एकजुटता बनी रहे, यह इस राजनैतिक दलों की सियासत को काफी सूट करता है। जानकार कहते हैं कि सही जनगणना होने से कोई नुकसान नहीं होगा बल्कि तमाम जातियों के बारे में और उनकी स्थिति के बारे में पता चलेगा और उन्हें उनका आरक्षण, समाज में स्थान और अन्य संसाधनों में पूरा हक मिल सकेगा।बहरहाल, जातीय जनगणना की वकालत करने वाले लोग और नेता कहने को तो यही कहते हैं कि सभी जातियों के उत्थान और उनके वाजिब हक के लिए भी यह जरूरी होता है, लेकिन केंद्र की सत्ता में रहने वाली पार्टी कुछ-न-कुछ बहाना बनाकर हर बार इसे टाल जाती है। जातीय जनगणना को लेकर सबसे ज्यादा सियासत बिहार और उत्तर प्रदेश में देखने को मिलती है। नारा भी बुलंद रहता है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।‘ उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ऐसी दो बड़ी क्षेत्रीय पार्टी हैं जो लम्बे समय से जातिगत जनगणना की मांग करती रही हैं। इसमें से बिहार सरकार द्वारा जातीय गणना कराये जाने को हरी झंडी भी दे दी गई है। बिहार के जनता दल युनाइटेड-राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के गठबंधन वाली सरकार ने जिसके मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, ने जातीय गणना का काम सात जनवरी से आरंभ भी कर दिया है। इस गणना का नफा-नुकसान तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन एक बात पक्की है कि राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की मांग पर आखिरकार अमल हो गया। यानि सीधे सपाट शब्दों में कहें तो जातीय गणना की शुरुआत करा करा आरजेडी ने अपनी पहली रणनीतिक जीत हासिल कर ली है। नीतीश कुमार जब बीजेपी के साथ एनडीए की सरकार में थे तो आरजेडी के तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने यह मांग नीतीश कुमार से की थी। नीतीश कुमार ने उसके बाद एक सर्वदलीय प्रतिनिधि् ामंडल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास भेजा था। उधर, आज भले ही बिहार बीजेपी के नेता जातीय गणना की प्रासंगिकता पर अब सवाल खड़ा कर रहे हैं, लेकिन उस वक्त दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से मिलने गये सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के सदस्य भी शामिल थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीजेपी भी इसका विरोध करके किसी जाति को नाराज नहीं करना चाहती है।बिहार, कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर सूबे में जातीय गणना को अंजाम देगा। इस महाभियान पर सरकारी खजाने से 500 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे जो 9 महीने के भीतर सूबे की 14 करोड़ की आबादी की जाति, उपजाति, धर्म और संप्रदाय के साथ ही उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति का भी आकलन करेगा। बताते चलें कि भारत में हर दस साल में एक बार जनगणना की जाती है। इससे सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है। किस तबके को कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन हिस्सेदारी से वंचित रहा, इन सब बातों का पता चलता है, लेकिन इसके आंकड़े एकत्र नहीं किये जाते हैं। तब भी कई नेताओं की मांग रहती थी कि जब देश में जनगणना की जाए तो इस दौरान लोगों से उनकी जाति भी पूछी जाए। इससे हमें देश की आबादी के बारे में तो पता चलेगा ही, साथ ही इस बात की जानकारी भी मिलेगी कि देश में कौन-सी जाति के कितने लोग रहते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो जाति के आधार पर लोगों की गणना करना ही जातीय जनगणना होता है। बात पुरानी है। साल 2010 में जब भाजपा सत्ता में नहीं थी। संसद के भीतर भाजपा के दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर बड़ी साफगोई के साथ कह रहे थे कि अगर ओबीसी जातियों की गिनती नहीं हुई तो उनको न्याय देने में और इस साल लग जाएंगे। इसके बाद जब भाजपा सत्ता में आई और तय समय के अनुसार दस साल बाद 2021 में जनगणना होनी थी, लेकिन नहीं हुई, तब इसी साल ससंद में भाजपा से एक सवाल किया गया कि 2021 की जनगणना जातियों के हिसाब से होगी या नहीं? नहीं होगी तो क्यों नहीं होगी। सरकार का लिखित जवाब आया। कहा कि सिर्फ एससी, एसटी को ही गिना जाएगा। यानी ओबीसी जातियों को गिनने का कोई प्लान नहीं है। कहने का मतलब ये है कि केंद्र की सत्ता में जो भी पार्टी होती है, वो जातीय जनगणना को लेकर आनाकानी करती ही है। विपक्ष में जब ये पार्टियां होती हैं तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती हैं।पता हो कि भारत में आखिरी बार ब्रिटिश शासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना हुई थी। इसके बाद 1941 में भी जनगणना हुई लेकिन आंकड़े पेश नहीं किए गए। इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आजाद हो चुका था। यानी अब ये जनगणना 1951 में हुई, लेकिन इस जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया। कहने का मतलब ये है कि 1951 में अंग्रेजों की जनगणना नीति में बदलाव कर दिया गया जो कमोबेश अभी तक चल रहा है। इस जनगणना से पहले साल 1950 में संविधान लागू होते ही एससी और एसटी के लिए आरक्षण शुरू कर दिया था, कुछ साल बीते और पिछड़ा वर्ग की तरफ से भी आरक्षण की मांग उठने लगी।ज्ञातव्य है कि आरक्षण के मामले में पिछड़ा वर्ग की परिभाषा कैसी हो, इस वर्ग का उत्थान कैसे हो, इसके लिए कई बार तमाम सरकारों ने विचार भी किया था। 1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने काका कालेलकर आयोग बनाया था। काका कालेलकर आयोग ने 1931 की जनगणना को आधार मानकर पिछड़े वर्ग का हिसाब लगाया। हालांकि काका कालेलकर आयोग के सदस्यों में इस बात को लेकर मतभेद था कि गणना जाति के आधार पर हो या आर्थिक आधार पर, इसी वजह से आयोग आगे काम ही नहीं कर पाया। वर्ष 1978 देश में गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। इस सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा आयोग बनाया। लेकिन साल 1980 के दिसंबर तक जब मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी तब तक जनता पार्टी की सरकार जा चुकी थी। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही ज्यादा पिछड़ी जातियों की पहचान की। कुल आबादी में 52 फीसदी हिस्सेदारी पिछड़े वर्ग की मानी गई। मंडल आयोग की तरफ से ये भी कहा गया कि पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। हालांकि मंडल आयोग की सिफारिशों पर अगले 9 सालों तक कोई ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन वर्ष 1990 में कांग्रेस से अलग होकर प्रध् ानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की उस सिफारिश को लागू कर दिया, जिसमें पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की मांग की गई थी। वीपी सिंह के इस फैसले के बाद बवाल हुआ, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। इसके बाद 1992 में सुप्रीम कोर्ट से विद्वान जज इंद्रा साहनी का ऐतिहासिक फैसले आया। जिसमें आरक्षण को सही माना गया लेकिन अधिकतम लिमिट 50 फीसदी तय कर दी गई।इसके 14 साल बाद 2006 में जब केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी, उनके मानव संसाधन विकास मंत्री अंर्जुन सिंह ने मंडल पार्ट-2 शुरू कर किया और इस मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू कर दिया गया जिसमें सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों, जैसे यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने पर मुहर लग गई। इस बार भी विवाद हुआ लेकिन सरकार अड़ी रही और ये लागू हो गया। इसके चार साल के बाद 2010 में कांग्रेस गठबंधन वाली सरकार के ही शासनकाल में देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी। लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, गोपी नाथ मुंडे जैसे नेताओं ने खूब जोर लगाकर इसकी मांग उठाई, हालांकि कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी, लेकिन लालू यादव जैसे अपने सहयोगियों के दबाव में आकर कांग्रेस को जातीय गणना पर विचार करना पड़ा। प्रणव मुखर्जी की अगुआई में एक कमेटी बनी, इसमें जनगणना के पक्ष में सुझाव दिए गए। इस जनगणना का नाम दिया गया सोशियो यानी इकॉनॉमिक एंड कास्ट सेन्सिस। सोशियो को पूरा करने में कांग्रेस ने 4800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। जिलावार पिछड़ी जातियों को गिना गया और इसका डाटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया। जिसके कई साल बाद तक इस डेटा पर बात नहीं हुई। 2014 में जब सरकार बदली और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तब थोड़ी बहुत सुगबुगाहट जरूर हुई और जातीय जनगणना के डेटा के क्लासिफिकेशन के लिए एक एक्सपर्ट ग्रुप बनाया गया। इस ग्रुप ने रिपोर्ट दी या नहीं, इसकी जानकारी अब तक नहीं आई है। कुल मिलाकर मोदी सरकार ने भी जाति के आंकड़ों को जारी करना मुनासिब नहीं समझा।