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नया वर्ष शुरू होते ही राजनीतिक दलों की सरगर्मियां भी नए मोड़ पर आने लगी हैं। क्योंकि इस वर्ष 9 राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं एवं अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव होने हैं। खास तौर से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर भारतीय जनता पार्टी एवं अन्य राजनीतिक दलों ने अभी से कमर कसना शुरू कर दिया है। भाजपा ने राजधानी दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में जिस तरह का जोश और जितना आत्मविश्वास दिखाया, उसे स्वाभाविक ही कहा जा सकता है और माना जा रहा है कि इस वर्ष के विधानसभा चुनावों के साथ-साथ अगले वर्ष के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर भाजपा चमत्कार घटित करने की तैयारी में है। विपक्षी दलों का उत्साह एवं जोश भी कम नहीं है। केन्द्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर राष्ट्रीय दल व क्षत्रप संगठित होते दिख रहे हैं। छोटे-से-छोटा दल भी यह माने बैठा है कि हम ही सत्ता प्राप्ति में संतुलन बिठायेंगे। सरकार कोई बनाए हम कुछ सीटों के आधार पर ही सत्ता की कुर्सी पर जा बैठेंगे। चुनावी गणित जिस प्रकार से बनाने के प्रयास हो रहे हैं, उसमें क्या तीसरी शक्ति निर्णायक बनने की मुद्रा में आ सकेगी? राहुल गांध् ा की भारत जोड़ो यात्रा का भी इन चुनावों में असर देखने को मिल सकता है। बावजूद इन सब स्थितियों एवं जोड़-तोड़ के राजनीतिक गणित के लगता नहीं है कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनाने में कोई बड़ा अवरोध खड़ा करने में विपक्षी दल सफल होंगे।दिल्ली में सम्पन्न भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक ने विभिन्न राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है। पार्टी की यह बैठक ऐसे समय हुई है, जब 2024 के लोकसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं, साथ ही उससे पहले नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इनमें से पांच राज्यों में बीजेपी या तो अकेली या सहयोगी दलों के साथ सरकार में है। पिछले वर्ष जिन दो राज्यों में विध् ानसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं, उसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात में पार्टी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की, लेकिन हिमाचल प्रदेश में एक फीसदी की जो कसर रह गई, उससे कांग्रेस के हौसले बुलंद हुए हैं। भाजपा के अपराजेय रहने का लक्ष्य हासिल नहीं करने दिया, जिसकी बीजेपी समर्थक उम्मीद कर रहे थे। ऐसे में अब और जरूरी हो गया है कि उस कसर की भरपाई भाजपा नेतृत्व कार्यकर्ताओं के जोश और उनके मनोबल को कई गुना बढ़ाकर करे। आश्चर्य नहीं कि पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कार्यकर्ताओं से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया कि 2023-24 में पार्टी एक भी चुनाव ना हारे। यह जोश भरने का एवं कार्यकर्ताओं को संगठित प्रयास करने का आह्वान पार्टी को कुछ अनोखा करने की भूमिका है।सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल- टूटन व गठबंधन की संभावनाएं बन रही हैं इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन है। विपक्ष संगठित हो, अच्छी बात है लेकिन इससे राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगने चाहिए। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा क्या राजनीतिक दलों को जोड़ पायेगी? नजरें उनकी इस यात्रा में शामिल होने वाले राजनीतिक दलों पर भी लगी हैं, लेकिन ऐसा कोई दल अभी तक तो सामने नहीं आया है। बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने आगामी चुनावों में अकेले लड़ने का ऐलान कर पार्टी की रणनीति साफ कर दी है, वहीं कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा के समापन पर 30 जनवरी को विपक्षी दलों को आमंत्रण देकर नए सिरे से विपक्षी एकता की ताकत आंकने का पासा फेंका है। इतना ही नहीं, दूसरे छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी अपने राजनीतिक फायदे के लिए गठजोड़ की राजनीति के गुणा भाग में व्यस्त हो गए हैं। कांग्रेस में एक ओर दांव खेला जा रहा है भाजपा के नेता वरुण गांधी को पार्टी में लाने एवं दो भाइयों का राजनीतिक मिलन कराने का। यह भी आगामी चुनावों के मद्देनजर किया जा रहा है। प्रजातंत्र में टकराव भी हो, तो मिलन भी हो। विचार फर्क भी हो तो उद्देश्यों में भी फर्क हो। मन-मुटाव भी हो, पर मर्यादापूर्वक। लेकिन राजनीति की विडम्बना है कि अब मर्यादा एवं राजनीतिक मूल्यों के इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बड़े रूप में देखने को मिल रहा है और जैसे-जैसे चुनावों का समय नजदीक आयेगा, ये दृश्य व्यापक रूप में दिखाई देंगे।चुनाव के मौकों पर नए समीकरणों के साथ गठबंधन की बातों से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन, अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि इन समीकरणों के पीछे विचारधारा का जोड़ कम और राजनीतिक फायदे का तोड़ अधिक नजर आता है। वर्ष 1977 के बाद से गठजोड़ की राजनीति का गवाह रहे देश ने कई समीकरण बनते-बिगड़ते देखे हैं। कभी भाजपा का चौधरी चरण सिंह से गठजोड़, तो कभी कांग्रेस को रोकने के लिए वीपी सिंह के नेतृत्व में भाजपा और वाम दलों का परोक्ष रूप से हाथ मिलाना। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ मिलाकर सरकार बनाई और जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर भी सरकार चलाई। पिछले लोकसभा चुनाव में शिवसेना, जनता दल-यू और अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी भाजपा बदले समीकरणों में अगला चुनाव इनके खिलाफ लड़ सकती है। लेकिन, चिंता इस बात की है कि ऐसे बनते-बिगड़ते समीकरणों का सीधा मकसद विचारधारा का आधार नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी करना भर रह गया है। राजनीतिक मूल्यों एवं लोकतंत्र को मजबूती देने का लक्ष्य किसी के भी सामने दिखाई नहीं देता। गठबंधन की राजनीति की शुरुआत में ही टूटन एवं निराशा के बादल छाये हैं। इस बात का आभास कांग्रेस ने 30 जनवरी की श्रीनगर रैली के लिए कुछ विपक्षी दलों को आमंत्रण नहीं भेज कर दिया है। न चंद्रशेखर राव की बीआरएस को बुलाया और न वाइएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी को। कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी से भी किनारा किया है, तो एआइएमआइएम और असम की एआइयूडीएफ से भी दूरी बनाई है। वैसे पूर्व के व्यापक राजनीतिक दलों के गठबंधन के गणित भी असफल ही रहे हैं, अब भी कोई व्यापक संभावनाएं सत्ता की लालसा एवं सर्वोच्च पद को लेकर जारी जद्दोजहद के कारण नहीं दिखती।नरेन्द्र मोदी एवं नड्डा के जोश भरे आह्वान सिर्फ शाब्दिक नहीं, प्रभावी हैं। संगठन को मजबूती देने की भाजपा की तैयारी ऐसी है, जिस पर भाजपा ने लगातार बेहतरीन प्रदर्शन करके दिखाया है। भाजपा का 72,000 कमजोर पाए गए बूथों को मजबूत बनाने के प्रध् ानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिए लक्ष्य से आगे बढ़कर 1.30 लाख बूथों तक पहुंच बना लेना निश्चित चुनावों में करिश्मा दिखायेगा। भाजपा अध्यक्ष का चुनाव न हो पाने की विपक्षी दल चाहे जैसे भी व्याख्या करें लेकिन भाजपा के लिहाज से देखें तो नड्डा की अध्यक्षता को जून 2024 तक का विस्तार देने का फैसला उचित, दूरगामी राजनीतिक सोच एवं परिपक्वता ही कहा जाएगा। जो चुनावी चुनौतियां पार्टी के सामने हैं, उनके मद्देनजर फिलहाल निरंतरता की जरूरत है।एक और बात है कि भाजपा ने दुनिया में देश की छवि को बुलंद करने का अपना मुख्य उद्देश्य काफी हद तक बनाए रखा है। राममंदिर के समय पर निर्माण में कामयाबी भी भाजपा के पक्ष में काम करेगी और पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में इसका पूरा इस्तेमाल करने में हिचकेगी नहीं। भाजपा की ओर से विकास, रोजगार एवं महंगाई पर नियंत्रण भी बड़े मुद्दे हांगे। प्रध् ानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को अब भी पार्टी अपना ऐसा अचूक हथियार मानती है जिसकी कोई काट विपक्ष के पास नहीं है। क्या विपक्षी दल भी ऐसे तीक्ष्ण एवं व्यापक प्रभाव वाले निर्णयों एवं कार्ययोजनाओं की ओर अग्रसर होंगे? क्या सपा, बसपा और वाम दल कांग्रेस से मंच साझा करेंगे? और ऐसा किया तो क्या भाजपा को रोकने के लिए वे साझा उम्मीदवार उतारेंगे? यह सवाल इसलिए, क्योंकि राजनीति की प्रयोगशाला में गठबंधन के प्रयोग विचारध् ारा को ताक में रखने के कारण ही विफल होते रहे हैं।नया वर्ष शुरू होते ही राजनीतिक दलों की सरगर्मियां भी नए मोड़ पर आने लगी हैं। क्योंकि इस वर्ष 9 राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं एवं अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव होने हैं। खास तौर से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर भारतीय जनता पार्टी एवं अन्य राजनीतिक दलों ने अभी से कमर कसना शुरू कर दिया है। भाजपा ने राजध् ानी दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक में जिस तरह का जोश और जितना आत्मविश्वास दिखाया, उसे स्वाभाविक ही कहा जा सकता है और माना जा रहा है कि इस वर्ष के विधानसभा चुनावों के साथ-साथ अगले वर्ष के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर भाजपा चमत्कार घटित करने की तैयारी में है।विपक्षी दलों का उत्साह एवं जोश भी कम नहीं है। केन्द्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर राष्ट्रीय दल व क्षत्रप संगठित होते दिख रहे हैं। छोटे-से-छोटा दल भी यह माने बैठा है कि हम ही सत्ता प्राप्ति में संतुलन बिठायेंगे। सरकार कोई बनाए हम कुछ सीटों के आधार पर ही सत्ता की कुर्सी पर जा बैठेंगे। चुनावी गणित जिस प्रकार से बनाने के प्रयास हो रहे हैं, उसमें क्या तीसरी शक्ति निर्णायक बनने की मुद्रा में आ सकेगी? राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का भी इन चुनावों में असर देखने को मिल सकता है। बावजूद इन सब स्थितियों एवं जोड़-तोड़ के राजनीतिक गणित के लगता नहीं है कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनाने में कोई बड़ा अवरोध खड़ा करने में विपक्षी दल सफल होंगे।दिल्ली में सम्पन्न भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिवसीय बैठक ने विभिन्न राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है। पार्टी की यह बैठक ऐसे समय हुई है, जब 2024 के लोकसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं, साथ ही उससे पहले नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इनमें से पांच राज्यों में बीजेपी या तो अकेली या सहयोगी दलों के साथ सरकार में है। पिछले वर्ष जिन दो राज्यों में विध् ानसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं, उसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात में पार्टी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की, लेकिन हिमाचल प्रदेश में एक फीसदी की जो कसर रह गई, उससे कांग्रेस के हौसले बुलंद हुए हैं। भाजपा के अपराजेय रहने का लक्ष्य हासिल नहीं करने दिया, जिसकी बीजेपी समर्थक उम्मीद कर रहे थे। ऐसे में अब और जरूरी हो गया है कि उस कसर की भरपाई भाजपा नेतृत्व कार्यकर्ताओं के जोश और उनके मनोबल को कई गुना बढ़ाकर करे। आश्चर्य नहीं कि पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कार्यकर्ताओं से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया कि 2023-24 में पार्टी एक भी चुनाव ना हारे। यह जोश भरने का एवं कार्यकर्ताओं को संगठित प्रयास करने का आह्वान पार्टी को कुछ अनोखा करने की भूमिका है।सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन की संभावनाएं बन रही हैं इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावन ाओं की सिहरन है। विपक्ष संगठित हो, अच्छी बात है लेकिन इससे राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगने चाहिए। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा क्या राजनीतिक दलों को जोड़ पायेगी? नजरें उनकी इस यात्रा में शामिल होने वाले राजनीतिक दलों पर भी लगी हैं, लेकिन ऐसा कोई दल अभी तक तो सामने नहीं आया है। बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने आगामी चुनावों में अकेले लड़ने का ऐलान कर पार्टी की रणनीति साफ कर दी है, वहीं कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा के समापन पर 30 जनवरी को विपक्षी दलों को आमंत्रण देकर नए सिरे से विपक्षी एकता की ताकत आंकने का पासा फेंका है। इतना ही नहीं, दूसरे छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी अपने राजनीतिक फायदे के लिए गठजोड़ की राजनीति के गुणा भाग में व्यस्त हो गए हैं। कांग्रेस में एक ओर दांव खेला जा रहा है भाजपा के नेता वरुण गांधी को पार्टी में लाने एवं दो भाइयों का राजनीतिक मिलन कराने का। यह भी आगामी चुनावों के मद्देनजर किया जा रहा है। प्रजातंत्र में टकराव भी हो, तो मिलन भी हो। विचार फर्क भी हो तो उद्देश्यों में भी फर्क हो। मन-मुटाव भी हो, पर मर्यादापूर्वक। लेकिन राजनीति की विडम्बना है कि अब मर्यादा एवं राजनीतिक मूल्यों के इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बड़े रूप में देखने को मिल रहा है और जैसे-जैसे चुनावों का समय नजदीक आयेगा, ये दृश्य व्यापक रूप में दिखाई देंगे।चुनाव के मौकों पर नए समीकरणों के साथ गठबंध् ान की बातों से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन, अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि इन समीकरणों के पीछे विचारधारा का जोड़ कम और राजनीतिक फायदे का तोड़ अधिक नजर आता है। वर्ष 1977 के बाद से गठजोड़ की राजनीति का गवाह रहे देश ने कई समीकरण बनते-बिगड़ते देखे हैं। कभी भाजपा का चौधरी चरण सिंह से गठजोड़, तो कभी कांग्रेस को रोकने के लिए वीपी सिंह के नेतृत्व में भाजपा और वाम दलों का परोक्ष रूप से हाथ मिलाना। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ मिलाकर सरकार बनाई और जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिलकर भी सरकार चलाई। पिछले लोकसभा चुनाव में शिवसेना, जनता दल-यू और अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी भाजपा बदले समीकरणों में अगला चुनाव इनके खिलाफ लड़ सकती है। लेकिन, चिंता इस बात की है कि ऐसे बनते-बिगड़ते समीकरणों का सीधा मकसद विचारधारा का आधार नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी करना भर रह गया है। राजनीतिक मूल्यों एवं लोकतंत्र को मजबूती देने का लक्ष्य किसी के भी सामने दिखाई नहीं देता। गठबंधन की राजनीति की शुरुआत में ही टूटन एवं निराशा के बादल छाये हैं। इस बात का आभास कांग्रेस ने 30 जनवरी की श्रीनगर रैली के लिए कुछ विपक्षी दलों को आमंत्रण नहीं भेज कर दिया है। न चंद्रशेखर राव की बीआरएस को बुलाया और न वाइएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी को। कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी से भी किनारा किया है, तो एआइएमआइएम और असम की एआइयूडीएफ से भी दूरी बनाई है। वैसे पूर्व के व्यापक राजनीतिक दलों के गठबंधन के गणित भी असफल ही रहे हैं, अब भी कोई व्यापक संभावनाएं सत्ता की लालसा एवं सर्वोच्च पद को लेकर जारी जद्दोजहद के कारण नहीं दिखती।