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कैसे निबटें तालिबान से?

Editor@SKS by Editor@SKS
September 2, 2021
in ओपिनियन, विदेश
Reading Time: 1min read
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कैसे निबटें तालिबान से?
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अजय मित्तल

तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर सहज  ही कब्ज़ा किये जाने पर भारत के कई इस्लामी नेता खुश हैं। वहां की जनता ने इस कब्जे का जैसा स्वागत किया है (प्रारम्भिक रिपोर्टों में ऐसा ही बताया गया, यद्यपि बाद के समाचार कुछ विपरीत रहे हैं ), उसके लिए ये भारतीय नेता अफगान लोगों को मुबारकबाद दे रहे हैं। शरीयत का शासन इन्हें बड़ा प्यारा है,जिसकी घोषणा तालिबानों ने सत्ता संभालते ही कर दी थी।

इस सन्दर्भ में मुझे 1921 का एक प्रसंग याद आ रहा है भारत में तुर्की के खलीफा की बहाली का आन्दोलन चल रहा था, और उसमे कुछ खास सफलता हाथ नहीं लग रही थी। तो उन दिनों महात्मा गाँधी के दायें हाथ कहलाये जाने वाले मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने भारत को दार-उल-हर्ब (युद्ध की भूमि या गैर इस्लामी भूमि) घोषित कर दिया। मुफ्ती अब्दुल बारी ने फतवा दिया कि शरीयत के अनुसार मुसलमानों को हिजरत कर दार-उल-हर्ब से दार-उल-इस्लाम (शांति की भूमि या इस्लामी भूमि) में चला जाना चाहिए। अफगानिस्तान सबसे नजदीकी इस्लामी भूमि था। अतः मुफ्ती ने वहां चले जाने की हिदायत दी।

लगभग 20 हजार मुस्लिम उक्त फतवे का पालन करने की मंशा से अपना घरबार बेचकर हिजरत के लिए निकल पड़े। किन्तु जैसे ही ये दल खैबर दर्रा पार कर दार-उल-इस्लाम में घुसा, अफगानियों ने इन पर हमला कर इनका सामान छीन लिया, इनकी पिटाई कर वापस भारत में धकेल दिया। कुछ तो दुनिया से ही हिजरत कर गए, कुछ रोते-पीटते वापस अपने घरों को लौटे। पर यहाँ तो उनकी सम्पत्ति पहले ही दूसरों के कब्जे में जा चुकी थी। सो वे न घर के रहे, न घाट के। अफगानों के सम्बन्ध में यह है भारतीय मुस्लिमों का केवल 100 साल पुराना अनुभव।

इस घटना से केवल 24 वर्ष पूर्व 12 सितम्बर 1897 को सीमावर्ती सारागढ़ी के किले पर सिख रैजीमेंट के केवल 21 जवानों ने हवलदार ईशर सिंह के नेतृत्व में 10 हजार अफगानियों से लोहा लिया, तथा अधिकांश को मृत्यु घाट उतार दिया था, यह विश्व इतिहास का अनुपम अध्याय है। उससे दो पीढ़ी पहले हरिसिंह नलवा ने खैबर के आगे तक जाकर अफगानों के दिलों में कैसा खौफ भरा था ‘वह इस तथ्य से जाहिर है कि अफगान महिलायें अपने बच्चों को सुलाने के लिये उनमें नलवे का डर बैठाती थीं- ‘सफदा बाशिद, हरि आयद’ (चुपचाप सो जा, वर्ना हरि सिंह आ जायेगा।) हरि सिंह के भय के कारण अफगान पुरुष स्त्रियोचित्त सलवार धारण करने लगे थे वो आज तक चला आ रहा है। नलवे से पहले 1758 में रघुनाथ राव पेशवा ने कंधार जीतकर दक्षिण अफगानिस्तान पर भगवा फहरा दिया था। ये सम्पूर्ण इतिहास भारतीयों में बिजली के से आवेश का संचार कर देता है।

वास्तव में अफगान (अर्थात् उपगण) जब तक अपने वैदिक मूल से प्रेरित रहे, वे वीर-पराक्रमी-साहसी आर्य थे। खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपनी आत्मकथा में यही लिखा है कि हम तो विशुद्ध आर्य नस्ल के हैं, हमारा धर्मातन्तरण कर “मुल्लामुल्लांटों’ ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। खान साहब बंटवारे के बाद भारत में मिलना चाहते थे। पर कांग्रेस व लीग ने उन्हें जबरिया पाकिस्तान में शामिल किया। 1987 में भारत रत्न दिये जाने पर वे हिन्दुस्तान की लम्बी यात्रा पर आये थे और मेरठ प्रान्त में कई स्थानों से गुजरे थे। उनकी एक पुत्री का विवाह हिन्दू सैनिक परिवार में हुआ था।

वेदों में पख्तूनों के लिये पक्थ शब्द का प्रयोग हुआ है। जब तक अफगानिस्तान हिन्दू था (1010 ई. तक) और वहाँ के लोग अपनी वैदिक जड़ों से जुड़े थे, उनमें सभ्य-सुसंस्कृत समाज के संस्कार थे। धर्मान्तरण ने उनमें मानवीयता का लोप कर दानवता-पैशाचिकता भर दी , तालिबान उसी का सर्वाधिक प्रत्यक्ष रूप है। दशम गुरु गोविन्द सिंह ने इसी ओर संकेत कर लिखा था- “दैत्तां दी अल मुसलमान पई’ (दैत्यों की संतानें मुसलमान हुईं) अपनी माता गुजरी देवी से उन्होंने कहा था- माता जी, मैं कराँ दैत्तां दा संहार”।

दशम गुरु की भावना पुनः कार्यरूप में परिणत करने के दिन आ गये हैं।

संपादकीय लेख  श्री अजय मित्तल (संपादक, राष्ट्रदेव पत्रिका)

*अजय मित्तल जी एक स्तम्भकार एवं राष्ट्रदेव पत्रिका के संपादक है ,लेख उनकी निजी राय है

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Tags: #Taliban
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Comments 2

  1. Dr Pradeep Kumar says:
    4 years ago

    Good

    Reply
  2. Babu says:
    4 years ago

    Very good articles, informative

    Reply

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